जयपुर। शहर के निकट जोबनेर में पहाड़ी पर धार्मिक आस्था और शक्तिपीठ स्थल के रूप में मशहूर ज्वाला माता के यहां शारदीय नवरात्र में लक्खी मेला लगता है। यह मेला 15 दिन तक निरन्तर चलता है। यहां साल में दो मेलों का आयोजन होता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु माता के दर्शनों को आते हैं। पौराणिक मान्यता है कि यहां माता के घुटने की पूजा की जाती है।
मंदिर के पुजारी बनवारी ने बताया कि मंदिर के नीचे लांगुरिया बलवीर ऊंचे चबूतरे पर विराजमान हैं। लांगुरिया को भैरव भी कहा जाता है, जो माता के रक्षक माने जाते हैं। ठिकाने से मेले के लिए भक्तों को परवाना भेजा जाता है, जिसे राव जाति के लोग भक्तों तक लेकर पहुंचते हैं। मेले में पहुंचे वाले अलग-अलग पंथ के लोगों का पूर्व राजपरिवार की ओर से पाग, शिरोपाव व नारियल देकर सम्मान किया जाता है। मान्यता है कि निसंतान दंपति संतान की कामना लिए माता के मुख्य द्बार पर मेहंदी से हाथ का छापा और उल्टा स्वास्तिक बनाते हैं। रोगों से मुक्ति के लिए महिलाएं माता के यहां शरीर का कोई एक वस्त्र छोड़कर जाती है।
पूर्व राजपरिवार के संग्राम सिह ने बताया कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में मां पार्वती का अधजला शरीर कुंड से निकालकर क्रोधित शिव ने तांड़व किया था। तांड़व के दौरान जांघ से घुटने तक का हिस्सा यहां जोबनेर में गिरा, जो शक्तिपीठ कहलाया। यहां माता के घुटने की पूजा की जाती है। मंदिर को 732 वर्ष साल पहले मूल रूप चौहान काल में दिया गया था। माता के परम भक्त राव खंगार को मां ने सपने में आकर मंदिर में मंडप बड़ा करने व मेला लगाने की प्रेरणा दी थी।
राव खंगार के पुत्र जैतसिंह के शासनकाल में अजमेर के शासक मोहम्मद मुराद ने हमला कर जोबनेर ज्वाला माता मंदिर और चार किलों को ध्वस्त करने की रणनीति बनाई थी। मोहम्मद मुराद 32 हजार 200 सैनिकों के साथ हमले के लिए निकल पड़ा था। चिंतित जैतसिंह ने ज्वाला माता का स्मरण किया और सैनिकों के अलावा स्थानीय लोगों और वहां एक बारात में आए हुए बारातियों सहित आठ हजार लोगों को तैयार किया। माता ने जैत सिंह के सपने में आकर कहा कि तेरी फतह होगी। रात में रास्ते में विश्राम के लिए रुकी मुराद की आधी सेना को जैतसिंह ने मौत के घाट उतार दिया।